समय के साथ खर्चीले होते जा रहे चुनाव देश के विकास में बाधक

Prashant Prakash
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समय के साथ खर्चीले होते जा रहे चुनाव देश के विकास में बाधक

' देश को प्रगति पथ पर ले जाने के लिए चुनावों में होने वाले बेतहाशा खर्च को कम करने की जरूरत '

कुन्दन कुमार (वरिष्ठ पत्रकार, मुजफ्फरपुर) 
   
देश में 18वीं लोकसभा चुनाव सात चरणों में संपन्न हो चुके हैं। चुनाव आयोग के द्वारा मतदाताओं के लिए चुनावी प्रक्रिया को सकुशल संपन्न कराना किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है। क्योंकि इसके लिए बड़े पैमाने पर मतदान केन्द्रों की व्यवस्था करना, चुनाव कर्मचारियों और सुरक्षा बलों की तैनाती करना, ईवीएम की खरीद एवं रखरखाव, प्रशिक्षण, विज्ञापन, वीडियोग्राफी और प्रशासन आदि पर काफी व्यय करना पड़ता है।इसके बावजूद चुनावों में होने वाला यह व्यय कुल खर्च का लगभग 20 प्रतिशत ही होता है। अगर इसमें राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों के खर्च को भी जोड़ दिया जाए, तो यह खर्च बहुत ज्यादा हो जाता है। इससे न सिर्फ चुनावी लागत बढ़ रही है, बल्कि देश के विकास कार्य भी प्रभावित हो रहे हैं।

   एक आकलन के अनुसार,2014 में चुनाव पर लगभग 30 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए थे, जबकि 2019 में लगभग 60 हजार करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान था। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार 2024 के लोकसभा चुनाव में लगभग 1.20 लाख करोड़ रुपए खर्च होंगे। यह भी सच है कि भारत में चुनावों पर होने वाले वास्तविक खर्च और आधिकारिक तौर पर दिखाए गए खर्च में काफी अंतर होता है। चुनाव आयोग ने लोकसभा उम्मीदवारों के खर्च की सीमा 95 लाख रुपए निर्धारित की है। इसके बावजूद राजनीतिक पार्टियां और उम्मीदवार एक-एक सीट और एक-एक वोट के लिए पैसे को पानी की तरह बहाते हैं।
   वैसे तो चुनावों में बेतहाशा खर्च रोकने के लिए जनप्रतिनिधि कानून बनाया गया है।इसकी धारा 77(1) के तहत प्रत्येक उम्मीदवार को चुनावी खर्च का सही हिसाब-किताब चुनाव आयोग को देना होता है। यदि उम्मीदवार कोई गलत ब्योरा देता है, तो उसपर तीन साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। यह बेहद अफसोसजनक है कि ऐसा कानून होने और चुनाव आयोग की निगरानी के बाद भी करीब - करीब सभी उम्मीदवार बहुत बड़ी राशि चुनावों पर व्यय करते हैं। प्रश्न यह है कि भारत जैसे विकासशील देश में चुनावी आयोजनों पर उम्मीदवारों द्वारा इतना पैसा बहाना कहां तक उचित है ? 
   आज जब प्रत्येक मतदाता इंटरनेट मीडिया से जुड़ा हुआ है। यहां तक कि उसने अपना मन पहले से बना रखा होता है, तो इस प्रकार के व्यर्थ खर्चों का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। वैसे चुनावी खर्च कितना ज्यादा है,इसे समझने के लिए यह उदाहरण काफी है कि 18वीं लोकसभा चुनाव पर जो व्यय किया गया है, उससे सरकार लगभग आठ महीने तक फ्री में राशन बांट सकती थी। जाहिर है, इस समस्या का निदान होना चाहिए।जब भारत में धन का हस्तांतरण सुविधाजनक बनाया जा सकता है, तो चुनाव आयोग को सुरक्षित ऑनलाइन वोटिंग पर भी विचार करना चाहिए। इससे न सिर्फ चुनाव अवधि कम होगी, बल्कि चुनाव भी सुविधाजनक होंगे और मतदान प्रतिशत भी बढ़ेगा। आशा है कि न‌ई सरकार देश को प्रगति पथ पर ले जाने के लिए चुनावों पर होने वाले व्यर्थ के व्यय को कम करके देश के लोगों का धन देश के विकास पर ही व्यय करने की दिशा में आगे बढ़ेगी।

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