संपादकीय में पढ़िए - "अन्नदाता की फ़सल पर कुदरत का कहर"

Prashant Prakash
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देश की रीढ़ कहे जाने वाले किसान आज फिर से बेबसी और निराशा के दोराहे पर खड़े हैं। बिहार समेत कई राज्यों में हालिया तेज़ बारिश, ओलावृष्टि और आंधी-तूफान ने उनकी खड़ी फसलों को बर्बाद कर दिया। खेतों में लहराती गेहूं की फसल, जो कुछ ही दिनों में कटनी को तैयार थी, अब कीचड़ में सड़ रही है। यह सिर्फ़ एक फ़सल की बर्बादी नहीं, बल्कि एक किसान के पूरे साल की मेहनत, उसकी उम्मीदों और उसके भविष्य का पतन है।

हम अकसर ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा लगाते हैं, लेकिन जब यह किसान प्राकृतिक आपदा से त्रस्त होता है, तो उसे राहत की बजाय आश्वासन मिलता है। सरकारी मशीनरी सर्वे के नाम पर कागज़ी खानापूर्ति करती है, और मुआवज़ा इतना कम होता है कि उससे बीज भी नहीं खरीदे जा सकते।

बिहार सरकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह तुरंत इस स्थिति को गंभीरता से ले, सभी प्रभावित क्षेत्रों में सटीक और पारदर्शी सर्वे कराए, और किसानों को उनकी हानि के अनुसार मुआवज़ा दे। इस आपदा को ‘प्राकृतिक आपदा’ घोषित करना न केवल जरूरी है, बल्कि किसानों को राहत देने की दिशा में पहला ठोस क़दम भी होगा।

यह वक़्त किसानों को सहारा देने का है – न कि सिर्फ़ संवेदनाएं जताने का। अगर हम अन्नदाता के साथ खड़े नहीं हुए, तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी थाली सूनी होगी और हमारे देश की आत्मनिर्भरता पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा।

किसानों की लड़ाई अब अकेली नहीं होनी चाहिए। यह लड़ाई अब हर नागरिक की, हर जनप्रतिनिधि की, और हर जिम्मेदार संस्था की होनी चाहिए। क्योंकि अगर किसान टूटा, तो भारत की आत्मा टूट जाएगी।

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