"पाठ्यक्रम में सुधार की दरकार"

Prashant Prakash
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   पिछले 10 वर्षों में देश ने लगभग हर क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है, परन्तु शिक्षा का क्षेत्र कमोवेश उपेक्षित ही रहा। न‌ई सरकार में फिर से शिक्षा मंत्री बने धर्मेन्द्र प्रधान ने कहा है कि वह राष्ट्रीय शिक्षा नीति को तेजी से लागू करेंगे। इसका तात्पर्य है कि अभी तक तेजी दिखाई नहीं ग‌ई। वैसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रचार-प्रसार तो खूब हुआ, परन्तु धरातल पर उसका क्रियान्वयन, प्रभाव और परिणाम दिखाई नहीं देता। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भावी पीढ़ी के भविष्य और निर्माण से जुड़ा विषय समाज और सरकार की प्राथमिकता सूची में निचले क्रम पर दिखता है। उम्मीद थी कि बीते 10 वर्षों की पूर्ण बहुमत वाली सरकार में पाठ्यक्रम में सुधार की दृष्टि से निर्णायक पहल की जाएगी, परन्तु इस दिशा में अभी तक खानापूर्ति ही अधिक हुई है। जबकि आवश्यकता संशोधन - संक्षिप्तीकरण की नहीं, अपितु राष्ट्र की आकांक्षा के अनुरूप पाठ्यक्रम में आमूलचूल परिवर्तन से जुड़ी है।

   यह कैसी विडम्बना है कि हमारे बौद्धिक-राजनीतिक-अकादमिक विमर्श में 'भारतवर्ष में व्याप्त विविधता में एकता ' का उल्लेख तो भरपूर किया जाता है, परन्तु उसे पोषण देने वाले मूल्यों, मान्यताओं, परंपराओं, प्रमुख घटकों, मंदिरों, मठों, तीर्थों और त्योहारों आदि की कोई चर्चा नहीं होती। क्या पाठ्यक्रम में इन्हें यथोचित स्थान नहीं मिलना चाहिए ? इतिहास की हमारी पाठ्य-पुस्तकों में विदेशी आक्रांताओं की अतिरंजित विवेचना की गई है और भारतीयों के साहस, संघर्ष एवं प्रतिरोध को अपेक्षाकृत कम महत्व दिया गया है।देश के वैशिष्ट्य एवं गौरवशाली अध्यायों की अपेक्षा केवल दिल्ली - केन्द्रित इतिहास को केन्द्र में रखा गया है तथा देश के अमर सपूतों, बलिदानी धर्मरक्षकों, महान संतों, समन्वयवादी समाज-सुधारकों, क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता सेनानियों को नेपथ्य में रख, महज़ दो-चार का महिमामंडन किया गया है। लिहाज़ा यह समय की मांग है कि मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में शिक्षा-क्षेत्र में सुधारों को गति एवं दिशा मिले तथा पाठ्यक्रम में अविलंब व्यापक परिवर्तन हो।

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मुजफ्फरपुर से कुन्दन कुमार

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