भारत के महानगरों में बढ़ते प्रदूषण ने सिर्फ लोगों की सेहत ही नहीं, बल्कि रियल एस्टेट मार्केट की ‘सच्चाई’ को भी बेनकाब कर दिया है। करोड़ों की कीमत पर बिकने वाले घर उस हवा में खड़े हैं, जिसे सांस में लेना ही बीमारियों को न्योता देना है। ऐसे में एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है—क्या अब घर की कीमत हवा की गुणवत्ता तय करेगी?
जहां हवा जहरीली, वहां घर इतने महंगे क्यों?
दिल्ली, गुरुग्राम, नोएडा, पटना, लखनऊ जैसे शहरों में AQI अक्सर 300–500 तक पहुंच जाता है। यह स्तर ‘बहुत खराब’ और ‘गंभीर’ श्रेणी में आता है।
फिर भी, इन शहरों के प्रीमियम इलाकों में फ्लैट और घरों की कीमतें लगातार बढ़ती जा रही हैं।
यह विरोधाभास समझना इसलिए जरूरी है, क्योंकि एक नागरिक जानना चाहता है—
क्या मैं अपने परिवार को एक खूबसूरत घर दे रहा हूं, या उन्हें एक धीमे जहर वाले वातावरण में डाल रहा हूं?
पहली बार उठ रही है मांग—घर की कीमतें AQI से जुड़ें
कई पर्यावरणविद और शहरी योजनाकार अब तर्क दे रहे हैं कि जैसे स्कूल, अस्पताल, सड़कें और मेट्रो रूट घर की कीमत तय करते हैं, वैसे ही AQI भी प्राइस का बड़ा फैक्टर होना चाहिए।
क्यों?
खराब AQI लाइफस्पैन घटाता है, बच्चों में अस्थमा, एलर्जी, फेफड़ों की समस्याएं बढ़ती हैं, निर्माण कंपनियों द्वारा किए गए ग्रीन वादे अक्सर कागजों तक सीमित रहते हैं, लोग घर खरीद तो लेते हैं, लेकिन बाद में पता चलता है कि इलाका ‘हेल्थ हैज़र्ड’ है।
अगर कीमतें AQI के आधार पर तय होने लगें तो डेवलपर्स को साफ हवा वाले क्षेत्रों में निवेश बढ़ाना होगा, और सरकार को प्रदूषण घटाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
